सामाजिक कहानियाँ >> समय के शरणार्थी समय के शरणार्थीराजू शर्मा
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
समय के शरणार्थी राजू शर्मा कथा-जगत के बाजार, विपणन - उसकी व्यूह - रचना और महफिलों से अलग रहनेवाले महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं। इसीलिए उनकी कहानियाँ समकालीन कहानी की रूढ़ियों, टोटकों और लोक-लुभावन नुस्खों से विरत अपना रचनात्मक मुहावरा स्वयं तैयार करती हैं। राजू शर्मा के इस कहानी-संग्रह समय के शरणार्थी की केन्द्रीय आवाज मौजूदा सभ्यता में सत्ता और तंत्र का आखेट बने साधारण मनुष्य की है। जैसा कि संग्रह की अद्भुत कहानी ‘कदाशय-सदाशय’ का एक वाक्य है - ‘सिस्टम की दृष्टिहीनता के समक्ष इन्सान की बेबसी’।
राजू शर्मा की कहानियाँ इसी बेबसी से मुक्ति के लिए तंत्र की अभेद्य दिखती किलेबन्दी का संधान करती हैं। उसकी क्रूरता, उसकी खुदगर्जी, उसकी संवेदनहीनता को जिस विलक्षणता और बेधकता के साथ राजू शर्मा ने उजागर किया है, वह हिन्दी कहानी में विरल है। उनके यहाँ सत्ता से भिड़न्त की शहीदाना मुद्रा, भारी-भरकम बजते हुए शब्दों का बड़बोलापन, अतिरंजित घटनाएँ और नाटकीय कथोपकथन नहीं है, राजू शर्मा संजीदा कथाकार की तरह मुश्किल से अर्जित हो सकने वाले रचनात्मक धैर्य से तंत्र के भयानक रूप से फैले संजाल की शिनाख्त करते हैं और उसे छिन्न-भिन्न करते हैं।
समय के शरणार्थी की कहानियाँ हिन्दी कहानी की पूर्व प्रदत्त कथन-शैलियों के बजाय अपनी निर्मिति के लिए नवीन रूपविधान का आविष्कार करती हैं। कहानी की परम्परागत संरचना में ऐसी सृजनात्मक तोड़-फोड़ कम कथाकार कर पाते हैं। दरअसल राजू शर्मा यथार्थ को जिस तरह प्रकट करने की ठानते हैं और जिस तरह तंत्र के अन्याय और उसका आखेट बने मनुष्य की पीड़ा को एक साथ दर्ज करते हैं, वह रूढ़ ढाँचे में मुमकिन नहीं। राजू शर्मा जान-बूझकर कहानी की नई शक्ल नहीं बनाते, बल्कि अपनी रचना-प्रक्रिया में कहानी की पुरानी संरचना का ऐसा विखण्डन करते हैं कि एक भिन्न और मौलिक ढाँचा तैयार हो जाता है, जिसमें सच्चाई के विविध अर्थों और उनके एकाधिक पाठ को निवास करने के लिए जगह होती है।
राजू शर्मा की कहानियाँ इसी बेबसी से मुक्ति के लिए तंत्र की अभेद्य दिखती किलेबन्दी का संधान करती हैं। उसकी क्रूरता, उसकी खुदगर्जी, उसकी संवेदनहीनता को जिस विलक्षणता और बेधकता के साथ राजू शर्मा ने उजागर किया है, वह हिन्दी कहानी में विरल है। उनके यहाँ सत्ता से भिड़न्त की शहीदाना मुद्रा, भारी-भरकम बजते हुए शब्दों का बड़बोलापन, अतिरंजित घटनाएँ और नाटकीय कथोपकथन नहीं है, राजू शर्मा संजीदा कथाकार की तरह मुश्किल से अर्जित हो सकने वाले रचनात्मक धैर्य से तंत्र के भयानक रूप से फैले संजाल की शिनाख्त करते हैं और उसे छिन्न-भिन्न करते हैं।
समय के शरणार्थी की कहानियाँ हिन्दी कहानी की पूर्व प्रदत्त कथन-शैलियों के बजाय अपनी निर्मिति के लिए नवीन रूपविधान का आविष्कार करती हैं। कहानी की परम्परागत संरचना में ऐसी सृजनात्मक तोड़-फोड़ कम कथाकार कर पाते हैं। दरअसल राजू शर्मा यथार्थ को जिस तरह प्रकट करने की ठानते हैं और जिस तरह तंत्र के अन्याय और उसका आखेट बने मनुष्य की पीड़ा को एक साथ दर्ज करते हैं, वह रूढ़ ढाँचे में मुमकिन नहीं। राजू शर्मा जान-बूझकर कहानी की नई शक्ल नहीं बनाते, बल्कि अपनी रचना-प्रक्रिया में कहानी की पुरानी संरचना का ऐसा विखण्डन करते हैं कि एक भिन्न और मौलिक ढाँचा तैयार हो जाता है, जिसमें सच्चाई के विविध अर्थों और उनके एकाधिक पाठ को निवास करने के लिए जगह होती है।
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